आग की कोख से जन्मी : द्रौपदी
पांडवों को जुए के लिए बुलाने का मकसद था कि जुए में उनसे उनका राज्य छीन लिया जाए। दुर्योधन के निमंत्रण पर पांडव हस्तिनापुर आए। दोनों के बीच खेल शुरू हुआ। शुरू में युधिष्ठिर अपना पैसा, आभूषण, अपनी निजी संपत्ति सब हार गया। यहां तक कि उसने अपना राज्य भी दांव पर लगा दिया और उसे भी हार गया। इस पर दुर्योधन और शकुनि युधिष्ठर को उकसाने लगे कि ‘अभी भी दांव पर लगाने के लिए तुम्हारे पास अपने भाई हैं। तुम उन्हें दांव पर लगा सकते हो।’ एक एक करके युधिष्ठर अपने भाइयों को दांव पर लगाता गया और हारता गया। अंत में वह अपने चारों भाइयों को हार बैठा। तब कौरवों ने उसे द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए उकसाया। उन्होनें कहा कि ‘अगर तुम अपनी पत्नी को दांव पर लगाते हो और जीत जाते हो तो तुम अपना सबकुछ वापस पा सकते हो। अगर तुम हारते हो सिर्फ अपनी पत्नी को हारोगे।’ मूर्ख युधिष्ठिर उनकी बातों में आ गया और उसने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया और उसे भी हार गया।
इस जीत से दुर्योधन और शकुनि बेहद खुश हो गए। उन्होंने कहा, ‘तुम जुए में हार गए हो; अब तुम, तुम्हारे भाई और तुम्हारी पत्नी सब हमारे दास हैं।’ दुर्योधन ने द्रौपदी को सभा में लाने का आदेश दिया। एक संदेशवाहक महल के भीतर द्रौपदी के पास गया और उसने बताया कि जुए में युधिष्ठिर ने आपको दांव पर लगाया और वह हार गए। इतना सुनते ही द्रौपदी क्रोध से पागल हो उठी। उसने कहा, ‘वह मुझे दांव पर कैसे लगा सकते हैं। अगर उन्होनें खेल में पहले खुद को दांव पर लगाया और हार गए तो वह दास हो गए। एक दास को यह अधिकार कैसे हो सकता है कि वह मुझे दांव पर लगाए।’ द्रौपदी ने सभा में जाने से साफ इनकार कर दिया।
कौरवों में दुशासन कक्ष में गया और द्रौपदी को उसके बालों से खींचते हुए सभा में ले आया। भारत वर्ष के इतिहास में इससे पहले ऐसी घटना कभी नहीं हुई थी। यह घटना देखकर हर कोई खिन्न और सदमे में था। लेकिन कौरव एक तकनीकी आधार पर दलील दे रहे थे- ‘वे लोग खेल में हार गए हैं। अब वह एक गुलाम स्त्री है, इसलिए हम उसके साथ जो चाहे, कर सकते हैं।’ कर्ण कौरवों से एक कदम आगे बढ़ते हुए बोला- ‘यहां तक कि इन पांच भाइयों और इस स्त्री ने जो कपड़े पहने हैं, उन पर भी हमारा अधिकार है। तुम लोगों को इन कपड़ों को उतार देना चाहिए।’ यह सुनकर उन पांच भाइयों ने तुरंत अपने उपरी वस्त्र उतार दिए और अंत:वस़्त्रों में एक तरफ खड़े हो गए। जबकि द्रौपद्री सिर्फ एक वस्त्र यानी साड़ी में थी। वे लोग पांडवों और द्रौपदी को अपमानित करना चाहते थे। इसलिए वह इस हद तक गए कि उन्होंने भरी सभा में सबके सामने द्रौपदी की साड़ी खींचनी शुरू कर दी।
द्रौपदी ने जब खुद को निस्सहाय पाया तो उसने कृष्ण का नाम लेना शुरू कर दिया। तभी एक चमत्कार हुआ। दुशासन जितनी द्रौपदी की साड़ी खींचता, उसकी साड़ी उतनी ही बढ़ती जाती। देखते देखते द्रौपदी की साड़ी का ढेर लग गया। साड़ी खींचते-खीचते दुशासन थककर हांफ ने लगा। अंत में पांडवों और द्रौपदी को दासत्व से मुक्ति दे दी गई। पांडवों को उनका पूरा राज्य और दौलत दे दी गई। लेकिन कौरवों के कहने पर युधिष्ठर जुए का एक और दांव खेलने बैठ गया और फिर सब कुछ अपना हार बैठा। इस बार हारने के बदले उन्हें बारह साल का वनवास और उसके बाद एक साल का अज्ञातवास मिला। इसमें शर्त रखी गई कि अगर अज्ञातवास में उनका पता चल जाता है तो उन्हें फिर से बारह साल का वनवास झेलना पड़ेगा।
जुए में अपना सब कुछ गंवा देने के बाद जब पांडव वनवास की सजा काट रहे थे, तब दुर्योधन के जीजा जयद्रथ की बुरी नजर द्रौपदी पर पड़ी। उसने द्रौपदी के साथ जबरदस्ती की और उसे रथ पर ले जाने का दुस्साहस भी किया। लेकिन एन वक्त पर पांडव आ गए और उसे बचा लिया। पांडव वहीं पर जयद्रथ का वध करना चाहते थे लेकिन द्रौपदी ने पांडवों को ऐसा करने से तो रोक दिया जोकि उसकी बड़ी गलती थी। द्रौपदी ने जयद्रथ के सिर के बाल मुंडवाकर पांच चोटियां रखने की सजा दी और सभी जनता के सामने उसका घोर अपमान करवाया। जयद्रथ किसी को अपना चेहरा दिखाने के लायक नहीं रहा और हर पल अपमान को सहता रहा। इस अपमान का बदला जयद्रथ ने चक्रव्यूह में फंसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को मौत के घाट उतारकर लिया।
एक दिन की बात है, जब पांडव अपनी पत्नी के सााथ वन में निवास कर रहे थे, दुर्योोधन के भेजे हुए महर्षि दुर्वासा अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर पांडवों के पास आये। दुष्ट दुर्योधन ने जान-बूझकर उन्हें ऐसे समय भेजा, जबकि सब लोग भोजन करके विश्राम कर रहे थे। महाराज ने युधिष्ठिर को अतिथि सेवा के उद्देश्य से ही भगवान सूर्यदेव से एक ऐसा चमत्कारी बर्तन प्राप्त किया था, जिसमें पकाया हुआ थोड़ा-सा भी भोजन अक्षय हो जाता था, परंतु उसमें शर्त यह थी कि जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर चुकती थी, तभी तक उस बर्तन में यह चमत्कार रहता था। युधिष्ठिर ने महर्षि को शिष्यमण्डली के सहित भोजन के लिये आमन्त्रित किया और दुर्वासा जी स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये सबके साथ गंगातट पर चले गये।दुर्वासा जी के साथ दस हज़ार शिष्यों का एक पूरा-का-पूरा विश्वविद्यालय चला करता था। धर्मराज ने उन सबको भोजन का निमन्त्रण तो दे दिया और ऋषि ने उसे स्वीकार भी कर लिया, परन्तु किसी ने भी इसका विचार नहीं किया कि द्रौपदी भोजन कर चुकी है, इसलिये सूर्य के दिये हुए बर्तन से तो उन लोगों के भोजन की व्यवस्था हो नहीं सकती थी। द्रौपदी बड़ी चिन्ता में पड़ गयी। उसने सोचा- "ऋषि यदि बिना भोजन किये वापस लौट जाते हैं तो वे बिना शाप दिये नहीं मानेंगे।" उनका क्रोधी स्वभाव जगदविख्यात था। द्रौपदी को और कोई उपाय नहीं सूझा। तब उसने मन ही मन भक्तभयभंजन भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और इस आपत्ति से उबारने की उनसे विश्वासपूर्ण प्रार्थना करते हुए अन्त में कहा- "आपने जैसे सभा में न दुशासन के अत्याचार से मुझे बचाया था, वैसे ही यहाँ भी इस महान संकट से तुरंत बचाइये-
दु:शासनादहं पूर्वं सभायां मोचिता यथा।
तथैव संकटादस्मान्माीयुत्रर्तुमिहार्हसि।।
श्रीकृष्ण तो सदा सर्वत्र निवास करते और घट-घट की जानने वाले हैं, वे तुरंत वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर द्रौपदी के शरीर में मानो प्राण लौट आये, डूबते हुए को मानो सच्चा सहारा मिल गया। द्रौपदी ने संक्षप में उन्हें सारी बात सुना दी। श्रीकृष्ण ने अधीरता प्रदर्शित करते हुए कहा- "और सब बात पीछे हागी। पहले मुझे जल्दीं से कुछ खाने को दो। मुझे बड़ी भूख लगी है। तुम जानती नहीं हो मैं कितनी दूर से हारा थका आया हूँ।" द्रौपदी लाज के मारे गड़-सी गयी। उसने रुकते-रुकते कहा- "प्रभो! मैं अभी-अभी खाकर उठी हूँ। अब तो उस बर्तन में कुछ भी नहीं बचा है।" श्रीकृष्ण ने कहा- "जरा अपना बर्तन मुझे दिखाओ तो सही।" कृष्णा उसे ले आयी। श्रीकृष्ण। ने हाथ में लेकर देखा तो उसके गले में उन्हें एक साग का पत्ता लगा हुआ मिला। उन्होंने उसी को मुंह में डालकर कहा- "इस साग के पत्ते से सम्पूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त हो जायँ।" इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा- "भैया! अब तुम मुनीश्वरों को भोजन के लिये बुला लाओ। सहदेव ने गंगातट पर जाकर देखा तो वहाँ उन्हें कोई नहीं मिला। बात यह हुई कि जिस समय श्रीकृष्ण ने साग का पत्ता मुंह में डालकर वह संकल्प किया, उस समय मुनीश्वर लोग जल में खडे होकर अघमर्षण कर रहे थे। उन्हें अकस्मात ऐसा अनुभव होने लगा मानो उन सबका पेट गले तक अन्न से भर गया हो। वे सब एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकने लगे और कहने लगे कि- "अब हम लोग वहाँ जाकर क्या खायेंगे। दुर्वासा ने चुपचाप भाग जाना ही श्रेयस्कर समझा, क्योंकि वे यह जानते थे कि पांडव भगवद्भक्त हैं । बस, सब लोग वहाँ से चुपचाप भाग निकले। सहदेव को वहाँ रहने वाले तपस्वियों से उन सबके भाग जाने का समाचार मिला और उन्होंने लौटकर सारी बात धर्मराज से कह दी। इस प्रकार द्रौपदी की श्रीकृष्ण भक्ति से पांडवों की एक भारी विपत्ति सहज ही टल गयी। श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर उन्हें महर्षि दुर्वासा के दुर्दनीय क्रोध से बचा लिया और इस प्रकार अपनी शरणागत वत्सलता का परिचय दिया।
पांडवों ने बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास पूरा किया और लौट कर अपना राज्य वापस मांगा। जब दुर्योधन ने पांडवों को उनका राज्य लौटाने से मना कर दिया तो युधिष्ठर ने कौरवों से कहा कि हम पांच भाइयों के लिए पांच गांव दे दिए जाएं। दरअसल, युधिष्ठर युद्ध नहीं चाहता था। लेकिन दुर्योधन ने इस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया कि मैं सुई की नोंक के बराबर भूमि नहीं दूंगा। अंतत: उसकी यह जिद पूरे परिवार को महाभारत के युद्ध तक ले गई।
जब दुशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया तो उसकी इस हरकत पर भीम ने प्रतिज्ञा की, कि एक दिन मैं दुशासन की छाती फाड़कर उसका लहू पियूंगा। दूसरी ओर द्रौपदी ने भीम से कहा कि जब तक उसकी छाती का खून नहीं लाओगे, तब तक मैं अपने बाल नहीं बांधूंगी। कई सालों बाद जब भीम ने महाभारत के युद्ध में दुशासन का वध किया तो द्रौपदी ने उसके खून से अपने बालों का अभिषेक किया और उसके बाद ही अपने बाल बांधे।
द्रौपदी बेहद सुंदर थी अर्जुन ने उन्हे जीता था लेकिन वह पांडवों की रानी बनी। वह इतनी सुंदर थी कि दुर्योधन की उन पर बुरी नज़र थी। उनकी सुंदरता के कारण ही उनकी दशा बन गई थी। उनकी सुंदरता ही उनके लिए जी का जंजाल बनी हुई थी।
अपने जीवन में द्रौपदी ने न ही किसी से कभी हार मानी और न ही वह कभी किसी से डरीं। भरी सभा में जब उन्हें निर्वस्त्र करने का दुस्साहस किया गया तो उन्होंने चुप्पी साधे बैठे भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे महान योद्धाओं की कठोर निंदा की। माना जाता है द्रौपदी कोई साधारण कन्या नहीं थीं, बल्कि वह अग्नि से प्रकट हुई थीं।
माना जाता है कि द्रौपदी भारत की पहली स्त्रीवादी थी। उन्होने अपने समय में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर आवाज उठाई थी और उनके हित की बात कही थी। कौरवों के जुल्मों पर भी वह खुलकर बोल देती थी।
द्रौपदी के बारे में भविष्य पुराण में कहा गया है कि वह पूर्व जन्म में एक विधवा ब्राह्मणी थीं। जबकि कुछ कथाओं में उन्हें इंद्राणी और लक्ष्मी स्वरूप भी बताया गया है। अंतिम समय में पांचों पांडव और द्रौपदी जब स्वर्ग जा रहे थे तब पैर फिसल जाने से द्रौपदी खाई में गिरने लगीं लेकिन भीम ने हाथ पकड़ लिया। भीम द्रौपदी को बचा नहीं पाए लेकिन शरीर त्यागते हुए द्रौपदी ने भीम से कहा कि अगर फिर जन्म मिले तो मैं फिर तुम्हारी पत्नी बनना चाहूंगी।
द्रौपदी एक बेहद तेजस्वी महिला थी। वह न सिर्फ बुद्धिमान और प्रतिभाशाली थी, बल्कि राजकाज के सभी कामों में रुचि लेती थी। लेकिन इसके साथ ही वह अपने साथ हुई ज्यादतियों के चलते बदले की आग में भी जल रही थी।
Nice post sneha
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