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आग की कोख से जन्मी : द्रौपदी

द्रौपदी :
पांचाली के महाराज द्रुपद की पुत्री, पांच पांडवो की अकेली रानी ,कृष्ण की प्रिय सखा , आग से जन्मी: द्रौपदी।
द्रौपदी, जिसकी सुंदरता और महानता के किस्से किसने नहीं सुने?  जिसने अपने शत्रुऔ को राख में बदल दिया।
 द्रौपदी का जन्‍म होते ही  आकाशवाणी हुई कि यह कन्या कुरू वंश के पतन का कारण बनेगी। महाभारत में द्रौपदी को बेहद खूबसूरत बताया गया है।  उनकी आंखें फूलों की पंखुडियों की भांति थी, वह काफी कुशाग्र और कला में दक्ष थी। उनके देह से नीले कमल की खुशबु आती थी।
महाराज द्रुपद की पुत्री होने के कारण उनका नाम  राजकुमारी द्रौपदी रखा गया। प्रुशत की पोती होने से  उन्हें परसती कहा जाता था।
सांवला रंग और लंबे केश होने और श्री कृष्ण की प्रिय सखा होने के करण उन्हें कृष्णा नाम भी दिया  गया। उनका और श्री कृष्ण का संबध कुछ अनोखा ही था । द्रौपदी भगवान कृष्‍ण को ही अपना सच्‍चा सखा, साथी और भ्राता मानती थीं। एक वही थे जो संकट के वक्‍त में द्रौपदी के साथ खड़े थे।।

महाराज द्रुपद ने उनके विवाह के लिए  स्वयंवर का आयोजन किया जिसमें कई राज्यो के राजकुमारो ने हिस्सा लिया।द्रौपदी की सुंदरता के करण हर कोई उनसे विवाह करना चाहता था। एक ओर स्वयंवर के लिए सभी राजा महराजा पधार चुके थे और दूसरी  ओर श्री कृष्ण विराजमान थे।
कुछ ही देर में राजकुमारी अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ हाथो में वरमाला लिए पहुंचती है।
धृष्टद्युम्न ये अहलान करते है की स्वयंवर की शर्त यह रहेगी की एक यंत्र के ऊपर एक मछली बंधी रहेगी यंत्र के साथ साथ मछली भी घूमेगी।
जो राजकुमार नीचे जल में बन रहे प्रतिबिंब में देख कर उस मछली के नेत्र पर निशाना लगा लेगा वो ही राजकुमारी  द्रौपदी से विवाह करेगा।
द्रौपदी के विवाह का संदेश जब पांडवो तक पहुंचता  है तब वे पांचाल कोर्ट में प्रवेश करते है।
राजकुमारी को हासिल करने के लिए हर कोई एक एक कर अपना पराक्रम दिखता है पर किसी को सफलता प्राप्त नहीं होती।
कर्ण भी स्वयंवर में शामिल हुए होते है वे भी अपना पराक्रम प्रस्तुत करने जा रहे होते है तभी श्री कृष्ण द्रौपदी को इशारा करते हैं की कर्ण विवाह के योग्य नहीं है। उसी क्षण द्रौपदी अहलान करती है कि" मै एक सारथी के बेटे से विवाह नहीं कर सकती"।।
द्रौपदी कर्ण को प्रेम करती थी, लेकिन जब उसे  ज्ञात हुआ  कि कर्ण एक सूत पुत्र है तो उसने अपना इरादा बदल दिया। उसने पहली बात तो यह कि कर्ण को स्वयंवर की प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने दिया और दूसरा यह कि उसने कर्ण का अपमान किया। यदि वह ऐसा नहीं करती तो परिणाम कुछ ओर होता। हालांकि महाराज द्रुपद ने द्रोणाचार्य की मृत्यु की प्रतिज्ञा ली थी और उनका वध अर्जुन के अलावा और कोई नहीं कर सकता था इसलिए वे चाहते थे कि उनकी पुत्री का विवाह अर्जुन से ही हो।
 कर्ण से अपना अपमान सहा नहीं गया और वह सभा छोड़ चले गए।
महाराज द्रुपद को इस बात का बहुत दुख हुआ कि उनकी पुत्री के लिए उन्हें कोई काबिल वर नहीं मिल पाया ।
कुछ क्षणो बाद अर्जुन अपना पराक्रम दिखाने पहुंचते है।ब्राह्मण के वेश में उन्हें कोई नहीं पहचान पाता है ।
अर्जुन ने बड़ी सटीकता से मछली की आंख पर निशाना लगाया और द्रौपदी को जीत लिया।
द्रौपदी यह देख कर खुश हुई और अर्जुन के गले में  वरमाला डाल दी।


सभी राजा अर्जुन से जलने लगते है और उसपर आक्रमण करते है पर भीम अर्जुन को बचाने उसके सामने आते है। भीम और पांच पाण्डव मिलकर सभी राजाओं को हरा कर द्रौपदी को अपने साथ ले जाते है।
जब पांडव अपनी कुटिया में पहुंचते है तो वे अपनी मां कुंती  से केहते है कि "देखिए मां हम आपके लिए क्या लाए है "।


कुंती ध्यान ना देते हुए कहती है कि जो भी लाए हो आपस में बाट लो।
जब मां कुंती  को पता चलता है कि वो एक स्त्री को ब्याह कर लाए है, जो पांचाल की राजकुमारी है और अर्जुन की पत्नी है तो उसे बहुत दुख होता है कि द्रोपदी  पाँचों भाइयों की पत्नी कहलायेगी तभी श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट होते हैं और माता कुंती से कहते है कि –“द्रोपदी ने पिछले जन्म में सर्वगुण संपन्न पति पाने के लिए भगवान शिव की तपस्या की थी, और उसने वरदान में पांच गुणों से युक्त पति की कामना की थी। तब भगवान शिव ने उसे वरदान दिया था कि अगले जन्म में उसे पांच पतियों की प्राप्ति होगी और हर एक पति में एक गुण होगा”। कुंती भगवान श्री कृष्ण की बात से सहमत हुई  और इस तरह कृष्णा पाँचों पांडवों की पत्नी कहलाने लगी।

धृष्टद्युम्न जब महाराज द्रुपद  को यह खबर देते है कि द्रोपदी पांचों पांडवों की पत्नी है तो राजा द्रुपद दुखी हो जाते है क्यकी ऐसा विवाह कानून के खिलाफ है।
उसी समय मुनि व्यास वहा पहुंचते है और द्रुपद को यह बताते है कि ये विवाह तो स्वयं भगवान शिव के आशीर्वाद से हुआ है ये कानून के खिलाफ नहीं बल्कि द्रोपदी को वरदान है।राजा द्रुपद ऋषि व्यास की बातों से सहमत होते है और अपनी पुत्री के विवाह का आयोजन करवाते हैं। पाँचों पांडव अपनी माता कुंती के साथ दरबार में प्रवेश करते है फिर कृष्णा का पाँचों पांडवों के साथ विवाह सम्पन्न होता है।
विवाह के बाद सभी पांडवों में यह आपसी सहमति बनी थी कि एक समय में द्रौपदी के साथ एक ही पांडव वक्‍त गुजार सकता है। किसी भी पांडव के  अपनी पत्‍नी के साथ होने  पर संकेत के तौर पर कक्ष के बाहर अपनी चरणपादुका रख देता था। लेकिन एक दिन जब युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ कक्ष में थे तब एक कुत्ता युधिष्ठिर का जूता उठाकर ले गया।इतने में अर्जुन किसी कारण उस कक्ष में आ गए। सजा के तौर पर अर्जुन को वन में जाना पड़ा। द्रौपदी ने कुत्ते को शाप दे दिया कि तुम खुले में संबंध बनाओगे और दुनिया तुम्हें देखेगी।।

एक दिन की बात है, पांडव और ब्राह्मण लोग आश्रम में बैठे थे। उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी आपस में मिलकर एक जगह बैठी थीं। दोनों ही आपस में बातें करने लगीं।
 सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा- प्रिय, तुम्हारे पति पांडवजन तुमसे हमेशा खुश रहते हैं। मैं देखती हूं कि वे लोग सदा तुम्हारे वश में रहते हैं। तुम मुझे भी ऐसा कुछ बताओ कि मेरे श्यामसुंदर भी मेरे वश में रहें। 
तब द्रौपदी कहती है :ये तुम मुझसे कैसी दुराचारिणी स्त्रियों के बारे में पूछ रही हो। जब पति को यह मालूम हो तो वह अपनी पत्नी के वश में नहीं हो सकता। 
तब सत्यभामा ने कहा- तो आप बताएं कि आप पांडवों के साथ कैसा आचरण करती हैं? 
उचित प्रश्न जानकर तब द्रौपदी बोली- सुनो मैं अहंकार और काम, क्रोध को छोड़कर बड़ी ही सावधानी से सब पांडवों की स्त्रियों सहित सेवा करती हूं। 
मैं ईर्ष्या से दूर रहती हूं। मन को काबू में रखकर कटु भाषण से दूर रहती हूं। किसी के भी समक्ष असभ्यता से खड़ी नहीं होती हूं। बुरी बातें नहीं करती हूं और बुरी जगह पर नहीं बैठती। 
पति के अभिप्राय को पूर्ण संकेत समझकर अनुसरण करती हूं। देवता, मनुष्य, सजा-धजा या रूपवान कैसा ही पुरुष हो, मेरा मन पांडवों के सिवाय कहीं नहीं जाता। उनके स्नान किए बिना मैं स्नान नहीं करती। उनके बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर में आते हैं, मैं घर साफ रखती हूं। समय पर भोजन कराती हूं। सदा सावधान रहती हूं। घर में गुप्त रूप से अनाज हमेशा रखती हूं। मैं दरवाजे के बाहर जाकर खड़ी नहीं होती हूं। पतिदेव के बिना अकेले रहना मुझे पसंद नहीं। साथ ही सास ने मुझे जो धर्म बताए हैं, मैं सभी का पालन करती हूं। सदा धर्म की शरण में रहती हूं। 

पांडवों ने हस्तिनापुर त्यागने के बाद नया शहर इन्द्रप्रस्थ बसाया । उन्होंने राजसूय यज्ञ की योजना बनाई। राजसूय यज्ञ की तैयारी में ब्राह्मणों के वेश में कृष्ण, अर्जुन और भीम जरासंध के पास गए और वहां मल्ल युद्ध में भीम के द्वारा जरासंध का वध हुआ। यज्ञ से पहले होने वाली अग्र पूजा में पितामह भीष्म द्वारा कृष्ण का नाम प्रस्तावित किया। इसके बाद शिशुपाल भगवान कृष्ण को अपशब्द बोलने लगा और फिर कृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध हुआ।
राजसूय यज्ञ में  भाग  लेने के लिए दुर्योधन भी इंद्रप्रस्थ पहुंचा था। यहां आकर वह इंद्रप्रस्थ महल का वैभव देखकर हैरान था। वह महल को इधर-उधर देखता हुआ आगे बढ़ रहा था। रास्ते में उसे एक ऐसा फर्श दिखा, जो अपने आप में एक पानी का ताल लगता था। जब उसने उसे छुआ तो महसूस हुआ कि यह तो पारदर्शी क्रिस्टल का है। दूसरी ओर द्रौपदी और भीम एक झरोखे में खड़े होकर यह पूरी घटना देख रहे थे। दुर्योधन को लगा कि जो भी ताल जैसा दिखता है, वह दरअसल फर्श है, जिस पर चला जा सकता है। उसके बाद उसने इस पर ध्यान देना छोड़ दिया। रास्ते में जब एक ताल आया तो दुर्योधन उसे भी फर्श समझकर जैसे ही आगे बढ़़ा, वह पानी में गिर पड़ा। दुर्योधन की इस हालत पर द्रौपदी जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ी।दुर्योधन ने जब द्रौपदी को अपने उपर इस तरह से हंसते देखा तो वह गुस्से से भर उठा। उसने मन ही मन सोचा कि एक न एक दिन इस औरत को इस अपमान का मजा चखाउंगा। 
वह सहन नहीं कर पा रहा था कि कैसे पांडवो ने अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया। इस अपमान से जलते हुए वह वापस हस्तिनापुर पहुंचा और पांडवों से बदला लेने की योजना बनाने लगा। दुर्योधन जानता था कि शायद वह आपसी युद्ध में पांडवों से जीत न सके, इसलिए उसने पांडवों से बदला लेने के लिए अपने मामा शकुनि की मदद ली। शकुनि ने उन्हें जुए के खेल में भाग लेने के लिए बुलाने की योजना बनाई। दरअसल, वह जानता था कि कोई भी क्षत्रिय कभी भी जुए के खेल के न्यौते को ठुकरा नहीं सकता, क्योंकि उस समय जुए का न्यौता ठुकराना क्षत्रिय के लिए कायरता मानी जाती थी। दूसरी ओर जुआ युधिष्ठिर की कमजोरी भी थी। हालांकि वह इस खेल में कोई खास पारंगत नहीं थे, जबकि शकुनि इस खेल का माहिर माना जाता था।

पांडवों को जुए के लिए बुलाने का मकसद था कि जुए में उनसे उनका राज्य छीन लिया जाए। दुर्योधन के निमंत्रण पर पांडव हस्तिनापुर आए। दोनों के बीच खेल शुरू हुआ। शुरू में युधिष्ठिर अपना पैसा, आभूषण, अपनी निजी संपत्ति सब हार गया। यहां तक कि उसने अपना राज्य भी दांव पर लगा दिया और उसे भी हार गया। इस पर दुर्योधन और शकुनि युधिष्ठर को उकसाने लगे कि ‘अभी भी दांव पर लगाने के लिए तुम्हारे पास अपने भाई हैं। तुम उन्हें दांव पर लगा सकते हो।’ एक एक करके युधिष्ठर अपने भाइयों को दांव पर लगाता गया और हारता गया। अंत में वह अपने चारों भाइयों को हार बैठा। तब कौरवों ने उसे द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए उकसाया। उन्होनें कहा कि ‘अगर तुम अपनी पत्नी को दांव पर लगाते हो और जीत जाते हो तो तुम अपना सबकुछ वापस पा सकते हो। अगर तुम हारते हो सिर्फ अपनी पत्नी को हारोगे।’ मूर्ख युधिष्ठिर उनकी बातों में आ गया और उसने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया और उसे भी हार गया।

इस जीत से दुर्योधन और शकुनि बेहद खुश हो गए। उन्होंने कहा, ‘तुम जुए में हार गए हो; अब तुम, तुम्हारे भाई और तुम्हारी पत्नी सब हमारे दास हैं।’ दुर्योधन ने द्रौपदी को सभा में लाने का आदेश दिया। एक संदेशवाहक महल के भीतर द्रौपदी के पास गया और उसने बताया कि जुए में युधिष्ठिर ने आपको दांव पर लगाया और वह हार गए। इतना सुनते ही द्रौपदी क्रोध से पागल हो उठी। उसने कहा, ‘वह मुझे दांव पर कैसे लगा सकते हैं। अगर उन्होनें खेल में पहले खुद को दांव पर लगाया और हार गए तो वह दास हो गए। एक दास को यह अधिकार कैसे हो सकता है कि वह मुझे दांव पर लगाए।’ द्रौपदी ने सभा में जाने से साफ इनकार कर दिया।

कौरवों में दुशासन कक्ष में गया और द्रौपदी को उसके बालों से खींचते हुए सभा में ले आया। भारत वर्ष के इतिहास में इससे पहले ऐसी घटना कभी नहीं हुई थी। यह घटना देखकर हर कोई खिन्न और सदमे में था। लेकिन कौरव एक तकनीकी आधार पर दलील दे रहे थे- ‘वे लोग खेल में हार गए हैं। अब वह एक गुलाम स्त्री है, इसलिए हम उसके साथ जो चाहे, कर सकते हैं।’ कर्ण कौरवों से एक कदम आगे बढ़ते हुए बोला- ‘यहां तक कि इन पांच भाइयों और इस स्त्री ने जो कपड़े पहने हैं, उन पर भी हमारा अधिकार है। तुम लोगों को इन कपड़ों को उतार देना चाहिए।’ यह सुनकर उन पांच भाइयों ने तुरंत अपने उपरी वस्त्र उतार दिए और अंत:वस़्त्रों में एक तरफ खड़े हो गए। जबकि द्रौपद्री सिर्फ एक वस्त्र यानी साड़ी में थी। वे लोग पांडवों और द्रौपदी को अपमानित करना चाहते थे। इसलिए वह इस हद तक गए कि उन्होंने भरी सभा में सबके सामने द्रौपदी की साड़ी खींचनी शुरू कर दी।


द्रौपदी ने जब खुद को निस्सहाय पाया तो उसने कृष्ण का नाम लेना शुरू कर दिया। तभी एक चमत्कार हुआ। दुशासन जितनी द्रौपदी की साड़ी खींचता, उसकी साड़ी उतनी ही बढ़ती जाती। देखते देखते द्रौपदी की साड़ी का ढेर लग गया। साड़ी खींचते-खीचते दुशासन थककर हांफ ने लगा। अंत में पांडवों और द्रौपदी को दासत्व से मुक्ति दे दी गई। पांडवों को उनका पूरा राज्य और दौलत दे दी गई। लेकिन कौरवों के कहने पर युधिष्ठर जुए का एक और दांव खेलने बैठ गया और फिर सब कुछ अपना हार बैठा। इस बार हारने के बदले उन्हें बारह साल का वनवास और उसके बाद एक साल का अज्ञातवास मिला। इसमें शर्त रखी गई कि अगर अज्ञातवास में उनका पता चल जाता है तो उन्हें फिर से बारह साल का वनवास झेलना पड़ेगा।

जुए में अपना सब कुछ गंवा देने के बाद जब पांडव वनवास की सजा काट रहे थे, तब दुर्योधन के जीजा जयद्रथ की बुरी नजर द्रौपदी पर पड़ी। उसने द्रौपदी के साथ जबरदस्ती की और उसे रथ पर ले जाने का दुस्साहस भी किया। लेकिन एन वक्त पर पांडव आ गए और उसे बचा लिया। पांडव वहीं पर जयद्रथ का वध करना चाहते थे लेकिन द्रौपदी ने पांडवों को ऐसा करने से तो रोक दिया जोकि उसकी बड़ी गलती थी। द्रौपदी ने जयद्रथ के सिर के बाल मुंडवाकर पांच चोटियां रखने की सजा दी और सभी जनता के सामने उसका घोर अपमान करवाया। जयद्रथ किसी को अपना चेहरा दिखाने के लायक नहीं रहा और हर पल अपमान को सहता रहा। इस अपमान का बदला जयद्रथ ने चक्रव्यूह में फंसे अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को मौत के घाट उतारकर लिया।
 एक दिन की बात है, जब पांडव  अपनी  पत्नी  के  सााथ  वन में निवास कर रहे थे, दुर्योोधन के भेजे हुए महर्षि दुर्वासा अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर पांडवों के पास आये। दुष्ट दुर्योधन ने जान-बूझकर उन्हें ऐसे समय भेजा, जबकि सब लोग भोजन करके विश्राम कर रहे थे। महाराज ने युधिष्ठिर को अतिथि सेवा के उद्देश्य से ही भगवान सूर्यदेव से एक ऐसा चमत्कारी बर्तन प्राप्त किया था, जिसमें पकाया हुआ थोड़ा-सा भी भोजन अक्षय हो जाता था, परंतु उसमें शर्त यह थी कि जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर चुकती थी, तभी तक उस बर्तन में यह चमत्कार रहता था। युधिष्ठिर ने महर्षि को शिष्यमण्डली के सहित भोजन के लिये आमन्त्रित किया और दुर्वासा जी स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये सबके साथ गंगातट पर चले गये।दुर्वासा जी के साथ दस हज़ार शिष्यों का एक पूरा-का-पूरा विश्वविद्यालय चला करता था। धर्मराज ने उन सबको भोजन का निमन्त्रण तो दे दिया और ऋषि ने उसे स्वीकार भी कर लिया, परन्तु किसी ने भी इसका विचार नहीं किया कि द्रौपदी भोजन कर चुकी है, इसलिये सूर्य के दिये हुए बर्तन से तो उन लोगों के भोजन की व्यवस्था हो नहीं सकती थी। द्रौपदी बड़ी चिन्ता में पड़ गयी। उसने सोचा- "ऋषि यदि बिना भोजन किये वापस लौट जाते हैं तो वे बिना शाप दिये नहीं मानेंगे।" उनका क्रोधी स्वभाव जगदविख्यात था। द्रौपदी को और कोई उपाय नहीं सूझा। तब उसने मन ही मन भक्तभयभंजन भगवान  श्री कृष्ण का स्मरण किया और इस आपत्ति से उबारने की उनसे विश्वासपूर्ण प्रार्थना करते हुए अन्त में कहा- "आपने जैसे सभा में न दुशासन  के अत्याचार से मुझे बचाया था, वैसे ही यहाँ भी इस महान संकट से तुरंत बचाइये-

दु:शासनादहं पूर्वं सभायां मोचिता यथा।
तथैव संकटादस्मान्माीयुत्रर्तुमिहार्हसि।।

श्रीकृष्ण तो सदा सर्वत्र निवास करते और घट-घट की जानने वाले हैं, वे तुरंत वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर द्रौपदी के शरीर में मानो प्राण लौट आये, डूबते हुए को मानो सच्चा सहारा मिल गया। द्रौपदी ने संक्षप में उन्हें सारी बात सुना दी। श्रीकृष्ण ने अधीरता प्रदर्शित करते हुए कहा- "और सब बात पीछे हागी। पहले मुझे जल्दीं से कुछ खाने को दो। मुझे बड़ी भूख लगी है। तुम जानती नहीं हो मैं कितनी दूर से हारा थका आया हूँ।" द्रौपदी लाज के मारे गड़-सी गयी। उसने रुकते-रुकते कहा- "प्रभो! मैं अभी-अभी खाकर उठी हूँ। अब तो उस बर्तन में कुछ भी नहीं बचा है।" श्रीकृष्ण ने कहा- "जरा अपना बर्तन मुझे दिखाओ तो सही।" कृष्णा उसे ले आयी। श्रीकृष्ण। ने हाथ में लेकर देखा तो उसके गले में उन्हें एक साग का पत्ता लगा हुआ मिला। उन्होंने उसी को मुंह में डालकर कहा- "इस साग के पत्ते से सम्पूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त हो जायँ।" इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा- "भैया! अब तुम मुनीश्वरों को भोजन के लिये बुला लाओ। सहदेव ने गंगातट पर जाकर देखा तो वहाँ उन्हें कोई नहीं मिला। बात यह हुई कि जिस समय श्रीकृष्ण ने साग का पत्ता मुंह में डालकर वह संकल्प किया, उस समय मुनीश्वर लोग जल में खडे होकर अघमर्षण कर रहे थे। उन्हें अकस्मात ऐसा अनुभव होने लगा मानो उन सबका पेट गले तक अन्न से भर गया हो। वे सब एक-दूसरे के मुंह की ओर ताकने लगे और कहने लगे कि- "अब हम लोग वहाँ जाकर क्या खायेंगे। दुर्वासा ने चुपचाप भाग जाना ही श्रेयस्कर समझा, क्योंकि वे यह जानते थे कि पांडव भगवद्भक्त हैं  । बस, सब लोग वहाँ से चुपचाप भाग निकले। सहदेव को वहाँ रहने वाले तपस्वियों से उन सबके भाग जाने का समाचार मिला और उन्होंने लौटकर सारी बात धर्मराज से कह दी। इस प्रकार द्रौपदी की श्रीकृष्ण भक्ति से पांडवों की एक भारी विपत्ति सहज ही टल गयी। श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर उन्हें महर्षि दुर्वासा के दुर्दनीय क्रोध से बचा लिया और इस प्रकार अपनी शरणागत वत्सलता का परिचय दिया।

पांडवों ने बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास पूरा किया और लौट कर अपना राज्य वापस मांगा। जब दुर्योधन ने पांडवों को उनका राज्य लौटाने से मना कर दिया तो युधिष्ठर ने कौरवों से कहा कि हम पांच भाइयों के लिए पांच गांव दे दिए जाएं। दरअसल, युधिष्ठर युद्ध नहीं चाहता था। लेकिन दुर्योधन ने इस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया कि मैं सुई की नोंक के बराबर भूमि नहीं दूंगा। अंतत: उसकी यह जिद पूरे परिवार को महाभारत के युद्ध तक ले गई।

जब दुशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास किया तो उसकी इस हरकत पर भीम ने प्रतिज्ञा की, कि एक दिन मैं दुशासन की छाती फाड़कर उसका लहू पियूंगा। दूसरी ओर द्रौपदी ने भीम से कहा कि जब तक उसकी छाती का खून नहीं लाओगे, तब तक मैं अपने बाल नहीं बांधूंगी। कई सालों बाद जब भीम ने महाभारत के युद्ध में दुशासन का वध किया तो द्रौपदी ने उसके खून से अपने बालों का अभिषेक किया और उसके बाद ही अपने बाल बांधे।

द्रौपदी बेहद सुंदर थी अर्जुन ने उन्‍हे जीता था लेकिन वह पांडवों की रानी बनी। वह इतनी सुंदर थी कि दुर्योधन की उन पर बुरी नज़र थी। उनकी सुंदरता के कारण ही उनकी दशा बन गई थी। उनकी सुंदरता ही उनके लिए जी का जंजाल बनी हुई थी।

अपने जीवन में द्रौपदी ने न ही किसी से कभी हार मानी और न ही वह कभी किसी से डरीं। भरी सभा में जब उन्‍हें निर्वस्‍त्र करने का दुस्‍साहस किया गया तो उन्‍होंने चुप्‍पी साधे बैठे भीष्‍म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे महान योद्धाओं की कठोर निंदा की। माना जाता है द्रौपदी कोई साधारण कन्‍या नहीं थीं, बल्कि वह अग्नि से प्रकट हुई थीं।

माना जाता है कि द्रौपदी भारत की पहली स्‍त्रीवादी थी। उन्‍होने अपने समय में महिलाओं पर होने वाले अत्‍याचारों पर आवाज उठाई थी और उनके हित की बात कही थी। कौरवों के जुल्‍मों पर भी वह खुलकर बोल देती थी।

द्रौपदी के बारे में भविष्य पुराण में कहा गया है कि वह पूर्व जन्म में एक विधवा ब्राह्मणी थीं। जबकि कुछ कथाओं में उन्हें इंद्राणी और लक्ष्मी स्वरूप भी बताया गया है। अंतिम समय में पांचों पांडव और द्रौपदी जब स्वर्ग जा रहे थे तब पैर फिसल जाने से द्रौपदी खाई में गिरने लगीं लेकिन भीम ने हाथ पकड़ लिया। भीम द्रौपदी को बचा नहीं पाए लेकिन शरीर त्यागते हुए द्रौपदी ने भीम से कहा कि अगर फिर जन्म मिले तो मैं फिर तुम्हारी पत्नी बनना चाहूंगी।

द्रौपदी एक बेहद तेजस्वी महिला थी। वह न सिर्फ बुद्धिमान और प्रतिभाशाली थी, बल्कि राजकाज के सभी कामों में रुचि लेती थी। लेकिन इसके साथ ही वह अपने साथ हुई ज्यादतियों के चलते बदले की आग में भी जल रही थी। 



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